संपूर्ण दिवस में एक क्षण
एक क्षण
जब अपना प्राकृत रूप पाता हूँ
तो देखता हूँ अपने मुखौटों को
जो नए और आकर्षक
ढ़ंग से सृजन किए हुए हैं
मेरी महत्वाकांक्षाएँ
देखता हूँ, ओढ़ रहा हूँ
सुबह की व्यस्तता का मुखौटा
स्वप्निल नींद से जाग जाने की झुँझलाहट
और दिन भर की
व्यस्तताओं की सूची
मेरे माथे की शिकन तक
लिखी हुई
आँखें उनींदी-सी
अभी भी रात के सपनों में
खोई-खोई
तभी याद आता है
आज का दिया हुआ हुआ
अपांइटमेंट
वही तोड़ता है मेरी काहिली
और बना देता है
मुझे मशीनी
थोड़ी देर बाद
जब बाहर कदम रखता हूँ
तो देखता हूँ
आईना
जमे हुए बालों से लेकर
जुराबों के रंग तक
सभी कुछ ठीक है
मगर
तभी आईने के अंदर से
कोई हँसता है
व्यंग्यपूर्वक
विद्रूप हँसी
मैं बलपूर्वक दबाता हूँ उसे
और चल देता हूँ
अभी थोड़ी देर बाद
किसी से मिलना जो है
यही दुनियादारी है ... अच्छी प्रस्तुति
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