Saturday, October 16, 2010

हम सारे कोलाज

एक खंड यहाँ से,
एक वहाँ से उठा,
टुकड़ों के इस सु(!)मेल से,
रचा गया है, मुझे, तुम्हें...
हम सबको...
हर कण की, हर खंड की...
ठहरी अलग प्रकृति अपनी
कोई संस्कृति, सभ्य पुरुष-सा,
कोई नराधम, अनाचारी,
कोई अजब, अमित स्वरूप-सा
कोई विकृत अविनासी
इन सबको जोड़ा गया
है, एक सूत्र में,
मैं भी इसी तरह
तुम भी इसी तरह
हम सारे कोलाज...
(कोलाज – उपयोगी, अनुपयोगी वस्तुओं को जोड़कर बनाई गई नई आकृति)
इसीलिए तो हममें
कुछ है मोम-सा नर्म...
कुछ है पाषाण-सा कठोर...
कुछ मधु-सा मीठा और
कुछ तमस का कटुकर...
इन सबके कॉकटेल से,
मैं भी बना हूँ,
तुम भी बने हो,
हम सारे कोलाज....।

Thursday, October 14, 2010

केवल कविता नहीं

कैसे उसको कविता कह दूँ केवल जो मेरी अविकल आहों का
जो मेरी अधूरी तृष्णाओं का लुटा हुआ खजाना है,
कैसे उसको कविता कह दूँ?
जिनसे छिपी मेरी पीड़ा है,
जिनमें छिपा मेरा मरघट-गान
जो मेरी यादों का,
महका हुआ वीराना है
कैसे उसको कविता कह दूँ?
जहाँ मैंने प्राण लुटाए,
जहाँ मैंने पाया जीवन,
जिनसे मेरे जीवन का
उलझा ताना-बाना है,
कैसे कहूँ कविता?
नहीं, नहीं यह कविता नहीं,
मेरे जीवन की सत्य कहानी है,
गीले नयनों से गा-गाकर
मुझे ही जिसे सुनानी है।

Tuesday, October 12, 2010

क्यों

क्यों जिए जा रहा हूँ मैं – क्यों? जीवन की राहों में,
है कितने कंटक और प्रस्तर-खंड,
घिसट-घिसट अपनी देह को,
अनजानी मंजिल पर लिए जा रहा हूँ क्यों?
क्यों जिए जा रहा हूँ – क्यों?
मैं अंतर्मन में छटपटाहट
मुख पर छद्म स्मित ओढे,
जीवन के इस रंगमंच पर, निरंतर
अभिनय किए जा रहा हूँ – क्यों?
क्यों जिए जा रहा हूँ मैं क्यों?
महत्वाकांक्षा को सहेजे,
दिवास्वप्नों को समेटे,
हृदय और आँखों में,
आशाएँ सजा रहा हूँ क्यों?
क्यों जिए जा रहा हूँ मैं क्यों?

Sunday, October 10, 2010

जब तुम नहीं होती हो

बहुत खामोश है फ़िज़ा, बड़ी उदास शाम है
यादें हैं, और खोई-सी आँखें हैं
गोकि तुम नहीं हो शहर में।
खाली दीवार से टकराकर,
आँखें खोजती है जाने क्या,
फिर ले आती है, एलबम-सा कुछ,
तस्वीरें अनवरत बोलती जाती है,
कुछ या दिखलाती है,
दर्द जगाती है,
बेचैनी बढ़ाती है,
तुम्हारी याद दिलाती है, ये भी कि
तुम नहीं हो शहर में।
आलम-ए-तनहाई है,
गहराती रात है,
धुँधला-सा चाँद है
फीकी-फीकी तारों की बारात है।
जज़्ब दिल के सारे जज़्बात है
क्योंकि तुम नहीं हो शहर में।
कितनी बेजार है, महफिलें,
बेमानी है हँसी, और माहौल,
बदरंग है सारे हँसी मंजर,
सब कुछ बदल गया है जब बदले
दिल के हालात हैं।
तुम नहीं हो शहर में
जा रहा हूँ मैं कहाँ,
ये कौन-सा मकाम है।
ये राहें हैं कौन-सी, कौन-से ये मोड़ हैं,
अजनबी सब लोग हैं,
अजनबी है रास्ते
कौन-सी गलियाँ है, कौन से मकान है
अजनबी ये शहर है, जब
तुम नहीं हो शहर में।
ना रंग है, ना राग है
ना महफिलें, ना ख्वाब है
ना गज़ल है ना नज़्म
कभी कोई टूटा-सा शेर,
आता है यक-ब-यक,
गम-ए-शायर के बदले
हालात हैं,
तुम नहीं हो शहर में।

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।