हरे-कच्च पहाड़ सफेद-नीला पानी लाल-हरे-नीले फिरोज़ी-जामनी-पीले मकान ढलवां-खपरीले रंग-बिरंगे कलात्मक परिधान गोरे-सफेद-सांवले लोगो के आबी-शिहाबी-धानी रानी-अंगूरी-आसमानी
समुद्री-सीप और शैवाल उससे ज़्यादा रंगों की शराब सफेद-ललछोंहे फूल कनेर के मिलते-जुलते समुद्री रेत से इन सब पर भारी, आठों याम
बदलते रंग समुद्र के ...................... और मुझ पर है छाया धूप-हवा-पानी के रस्ते चेहरे-हाथों- बालों वाला गहरा होता रंग तुम्हारा
पलोलेम बीच पर आज (तक) की महत् उपलब्धि मेरे हाथ लगी एक समुद्री सीप चिकनी...साबुत...मुक्ताभ... जाने उसमें क्या है ? कैसे बोलूंगा ? मोती ! घोंघा !! या सिर्फ कनियाँ रेत की !!! जो हो मैं उसे कभी नहीं खोलूंगा !! राज जो अनायास दिया है समुद्र ने मुझे कभी उसे नहीं खोलूंगा.....
यार! तुम बड़े साहसी हो बड़े बेलौस, बिन्दास अपनी कविताओं को प्रेम-कविताएँ कह लेते हो ......................... मैं तो अपनी लेखनी को कविताएँ कहने में हिचकता हूँ कविताओं को प्रेम-कविताएँ इतनी आसानी से तो नहीं नहीं ही कह सकता हूँ सच तो यह है,मैं इस शब्द को अपनी ज़ुबान पर लाने में डरता हूँ (और क्या सारी कविताऐं प्रेम-कविताऐं नहीं होतीं ) ............... दुनिया सच कहती है मैं अभी भी प्रेम करता हूँ
जाने कितनी बार तुम दूर गई हो मुझसे मगर हर बार मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करता हूँ उसी तरह वैसा ही तनाव वैसा ही खुमार सा वैसा ही अधसोया-अधजागापन वैसी ही बैरागी बेचारगी वैसी ही रागात्मक आवारगी वैसे ही बोल हल्के-हल्के वैसे ही कदम ढलके-ढलके वैसा ही प्यार नीले रंग से वैसा ही बैर बदरंग से वैसा ही लगाव रोशनी से वैसा ही दुराव अंधियारे से जाने कितनी बार तुम दूर गई हो मुझसे