Saturday, June 5, 2010

मेरी पीड़ा और एकाकी मन


अकेलेपन की छाया सघन
मेरी पीड़ा और एकाकी मन
अपने से ही बात करूँ
अपने सुख-दुख का हाल कहूँ
अपने घावों को खुद सहलाऊँ
खुद अपनी पीड़ा को गाऊँ
अकेलेपन की छाया सघन
मेरी पीड़ा और एकाकी मन
सत्य के क्षितिज पर पहुँच कर
अंतिम सत्य शून्य ही पाता
यह नहीं अंतिम सत्य
क्यों बार-बार मैं दोहराता
अकेलेपन की छाया सघन
मेरी पीड़ा और एकाकी मन
एकाकी है मेरा तन-मन
मंजिल मेरी एकाकी
दो पल साथ मिला किसी का
बाकी जीवन एकाकी
अकेलेपन की छाया सघन
मेरी पीड़ा और एकाकी मन
कितनी दूरी तय कर ली
कितना त्रास भोग चुका
नहीं मील का पत्थर पथ में
समझूँ कितना चलना है बाकी
अकेलेपन की छाया सघन
मेरी पीड़ा और एकाकी मन

Friday, June 4, 2010

क्यों लिखूँ गीत वेदना के


क्यों लिखूँ गीत वेदना के
क्यों स्वर को कटुतर बनाऊँ
तू मेरे गीतों को पढ़, मेरी
भावुकता पर तरस खाए
और स्वयं की जीत पर
मंद-मंद मुस्कुराए
क्यों लिखूँ गीत वेदना के
क्यों स्वर को कटुतर बनाऊँ
मैं अपनी भावुकता को तज
अपनी राह बनाऊँगा
जो तेरे दर तक पहुँचाए
उस राह कभी ना आऊँगा
क्यों लिखूँ गीत वेदना के
क्यों स्वर को कटुतर बनाऊँ
कभी था चाहा तुझे बहुत
अब पाने को अरमान नहीं
पास मेरे भी हैं प्रतीक्षित
तू ही एक पैगाम नहीं
क्यों लिखूँ गीत वेदना के
क्यों स्वर को कटुतर बनाऊँ
याद करके मेरा प्रणय
नयन एक होंगे एक दिन सजल
दूर बहुत दूर लेकिन तब
तलक मैं चला जाऊँगा
क्यों लिखूँ गीत वेदना के
क्यों स्वर को कटुतर बनाऊँ

Sunday, May 30, 2010

बरखा गीत


दूत बनाकर बादलों को
मैं लिखूँ पाती कोई
मेघमय आकाश सारा
आच्छन्न है हरीतिमा पर
हौले से आकर गालों पर
टकराती है बूँद कोई
तनमन सिहर सा जाता
मन कहता है स्वयं से
दूत बनाकर बादलों को
मैं लिखूँ पाती कोई
रोम-रोम पुलक उठता
मात्र जिसके स्मरण से
बह चली है मधुर गति से
अल्हड़-सी वो पुरवाई
वो जो मुझसे दूर कहीं है
रे तू सहेली है न उसकी
जा जरा उसको जगा दे
रूठ कर जो है सोई
दूत बनाकर बादलों को
मैं लिखूँ पाती कोई
बूँद बनकर बरस
रिमझिम-रिमझिम नृत्य कर
मैं चातक-सी तृष्णा लिए
जोहता हूँ बाट तेरी
पावस की इस ऋतु में
हम-तुम हो जाए समरस
मैं मस्त मतवाला बन जाऊँ
तुम रख लो साक़ी वेश कोई
दूत बनाकर बादलों को
मैं लिखूँ पाती कोई

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।