Saturday, October 23, 2010

मैं चैन से रह नहीं सकता

कोई आग़ोश में लेता है

मुझमें जादू-सा जगाता है
मैं आदमी बन बैठा फक़त
मुझे फिर इंसाँ बनाता है
एक शिखर पर पहुँचते ही
तलहटी की राह दिखाता है
मैं चैन से रह नहीं सकता
हरदम याद दिलाता है
मेरी गिरह में हैं कारूँ
मुझे कर्ण बनाता है
राम का कद उतना ही
रावण बढ़ता जाता है
दुनिया अजीब गोरखधंधा
मन उचटा जाता है



Thursday, October 21, 2010

मुद्दत हुई

गुजारे नहीं लम्हें अपने साथ
देर तक जागकर
लिखी नहीं नज़म
बिना दूध की
तुर्श चाय नहीं पी नींबू डालके
मुद्दत हुई
गुजारे नहीं दिन
तुम्हें याद करके
कुछ सोकर
कुछ खाकर
फिर सोकर
सपनों से सपनीले दिन
सरदर्द होने तक सोए रहने के
खाली कम खर्चीले दिन
मुद्दत हुई
गुजारे नहीं
बस अपने होने को
सहने-सहते रहने वाले दिन
...................................
मुद्दत हुई
तुम अकेला छोड़कर कहीं नहीं गई
सुनो! क्या अब सचमुच कभी मुझे अकेला नहीं छोड़ोगी?

Wednesday, October 20, 2010

transformation

कुछ कविताएँ

मेरे अंदर
कहानियाँ बन जाती हैं
कुछ कहानियाँ
कविता बनकर
मुझमें घर कर जाती है
कुछ कविताएँ
चोला चढ़ाकर
मूर्तियाँ बन जाती हैं
कुछ कहानियाँ
झटक कर अपना सारा स्थूल
महज सुगंध
बन जाती हैं

Tuesday, October 19, 2010

धूप क्वांर-कार्तिक की

धूप झिलमिलाती है
नए पैटर्न बनाती है
छा जाती है छत पे
पापड़-बड़ियाँ सुखाती है
रोशनदानों से छनकर
कोनों को महकाती है
खुली खिड़कियों में समा
दरवाजे को मुँह चिढ़ाती है
मेरी कलम पर उतर
कविता लिखवाती है
आ जाओ घर-जल्दी-
साँझ हुई जाती है
धूप क्वांर-कार्तिक की
मुझे तुझ-सा बनाती है

Sunday, October 17, 2010

नीलकंठ

जब
दुःख पीकर
और खुशी बाँटकर
जिए,
तो गहरा कहा
जाएगा तुझे





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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।