Friday, May 20, 2011

ज़िद


जिंदगी तुझसे माँगी है
 सर छुपाने को छत
खड़े रहने को जमीं
और साँस लेने भर हवा
खुशी से दे तो अहसान
वरना मेरी तो जरूरत है
ले लूँगा किसी भी तरह
बिना कोई दिए कीमत

Thursday, May 19, 2011

ऐसा भी वक्त आता है

बिखरे बाल
मन उदास
कभी रूकी, कभी तेज चलती साँस
न खुद का न किसी और का
न तन्हाई का खयाल
रूके हुए सृजन का
उलझती हुई राहों का दुख
बढ़ती हुई समंदर की प्यास
छटपटाती हुई आत्मा का त्रास
पेशानी पे सिलवटें सोच की
आँखें दूर कहीं
मगर टिकी हुई नहीं
उमड़ती घुमड़न का शोर मचाता ज्वार
लहरों से टकराते
बेतरतीब विचार
कभी-कभी
ऐसा भी वक्त आता है
जिंदगी में

Wednesday, May 18, 2011

मंजूषा


सत्य को नहीं
सहेजूँ यदी शब्दों में
तो जल्द ही मुझसे
वह खो जाता है
बैठ जाता है कहीं
तलहटी में
मन एकाकी उपर
रह जाता है
कहानी, कविता
ये सब मंजूषा है

Tuesday, May 17, 2011

कब? आखिर कब!


धूप-छाँह के अंतहीन सिलसिले में
कोई गहरी छाँह पर
दिन-रात के घूमते चक्र में
अपनी-सी एक शाम कब
बासंती, हेमंती, पतझड़ी मौसम में
प्रतीक्षित कोई कोंपल पर
ऊँची-नीची स्वरलहरियों के कोरस में
अपना कोई छंद कब
यह सब जाने कब
अभी तो बस
दौड़, प्रतीक्षा, संघर्ष
और गहरी, गहराती उदासी सब

Monday, May 16, 2011

कविताएँ इतनी महँगी क्यों होती हैं


पुस्तक प्रदर्शनी में
कविताएँ इतनी महँगी क्यों होती हैं
न इन्हें कोई खरीदता है
न पढ़ता है
न समझता है
(देखने वाले भी होते हैं इक्के-दुक्के ही)
फिर
कविताएँ इतनी महँगी क्यों होती है
कवि
इतना असंपृक्त क्यों होता है
न उसे कोई सराहता है
न दुलारता है
न समझता है
(जो समझते हैं, वो भी उपरी तहों में)
फिर
कवि कविताएँ क्यों लिखता है
कवि इतना स्वांत सुखाय कैसे होता है
कविताएँ इतनी महँगी क्यों होती है

Sunday, May 15, 2011

दुनियादारी


संपूर्ण दिवस में एक क्षण
एक क्षण
जब अपना प्राकृत रूप पाता हूँ
तो देखता हूँ अपने मुखौटों को
जो नए और आकर्षक
ढ़ंग से सृजन किए हुए हैं
मेरी महत्वाकांक्षाएँ
देखता हूँ, ओढ़ रहा हूँ
सुबह की व्यस्तता का मुखौटा
स्वप्निल नींद से जाग जाने की झुँझलाहट
और दिन भर की
व्यस्तताओं की सूची
मेरे माथे की शिकन तक
लिखी हुई
आँखें उनींदी-सी
अभी भी रात के सपनों में
खोई-खोई
तभी याद आता है
आज का दिया हुआ हुआ
अपांइटमेंट
वही तोड़ता है मेरी काहिली
और बना देता है
मुझे मशीनी
थोड़ी देर बाद
जब बाहर कदम रखता हूँ
तो देखता हूँ
आईना
जमे हुए बालों से लेकर
जुराबों के रंग तक
सभी कुछ ठीक है
मगर
तभी आईने के अंदर से
कोई हँसता है
व्यंग्यपूर्वक
विद्रूप हँसी
मैं बलपूर्वक दबाता हूँ उसे
और चल देता हूँ
अभी थोड़ी देर बाद
किसी से मिलना जो है

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।