Friday, October 18, 2013

शरद-पूर्णिमा, नहीं!



जब-जब
तुम अपना वजूद पहचानती हो
चमकते सूर्य की परछाई बन दमकता चाँद बनना नकारती हो
दुनिया में बढ़ जाती है शान, यकीन मानो,
चमक-दमक के इतर तुम अस्तित्व स्वीकारती हो
मेरे लिए स्वयं सूर्य बन जाती हो
मैं ऐश्वर्य नहीं ऐशवर्यपूर्ण सादगी पर मरता हूँ
शरद-पूनम नहीं,सघन-मावस मनाता हूँ
(कवि हूँ न. अँन्धेरों से रोशनी पाता हूँ)
जितनी भी हो खुद से हो रोशन तुम
मैं अपनी चमक को ढँक
तुम्हारे साथ तुम्हारा दिन गुजारना चाहता हूँ

मेरा काव्य संग्रह

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।