Saturday, March 20, 2010

मेरे गीत पंछी गीत

मेरे गीत पंछी गीत की तरह

एक पल गूँजे हवा में
दूजे पल हो गए हवा
अनगूँजे से रहे फिज़ा में
मेरे मीत ने क्या इन्हें सुना

किसी ने सुने तो बहका
किसी ने न भी सुने
किसी ने कर दिए
सुनकर भी अनसुने
मेरे गीत पंछी गीत की तरह

है जब कोई सुनता नहीं
इन दर्द भरे गीतों को
क्यों गाकर मैं दुख अपनाता
प्यास भरी ये दर्दील धुनें
[मेरे गीत पंछी गीत की तरह

अपनी आँखों में भर बेचैनी
नभ में मैं मँडराता हूँ
कह नहीं देता क्यों आँखों से
अब ना कोई ख़्वाब बुनें
मेरे गीत पंछी गीत की तरह

मेरे स्वर को नेह मिले यदि
गूँज उठे ये अखिल विश्व में
आज तो लेकिन कटू सत्य यह
छंद हैं आधे अधूरे अनमने

Friday, March 19, 2010

तन्हाई के साथी


चुकने को है जीवन की मधुता

अब तो हलाहल हैं शेष रहा
कितनी जल्दी पी ली हमने
सुख के लम्हों की मदिरा
जाने को है मधुबाला अब तो
रीता मधुघट ही निःशेष रहा
कितना मधुमय था तब आलम
जब हम मधुशाला में आए
महफिल में जब हम थे साक़ी को
दूजा न कोई विशेष रहा
क्या खबर थी इतनी कम
होती है उम्र मतवालों की
मदहोशी में क्यों डूबे हम
क्यों न वक्त का हमको होश रहा
चुन लूँ खंडित सागर, टूटे प्याले
मधुमय यादें, मधुमय बातें
तन्हाई के यही साथी
मधुमय युग का इतना ही अवशेष रहा
पिएँगे हलाहल भी उतने ही प्यार से
जितने प्यार से पी थी मदिरा
यम पूछेगा अंतिम इच्छा नीरव
कहेंगे रख ले साक़ी का वेश जरा

Wednesday, March 17, 2010

खुद से हूँ अनजान

पहचान मेरी मुझको करा दे कोई
हरपल बदलते हैं आचार
हरपल बदलते हैं विचार
कारण इस परिवर्तन का आकर मुझे बता दे कोई

कभी सोचता हूँ, ये न करूँगा
कभी सोचता हूँ, ये ही करूँगा
परिभाषा मेरे कर्मों की मुझको अब समझा दे कोई

कभी देखा अँखियन में खुद को
कभी देखा दर्पण में खुद को
बदला-बदला सा लगा जब भी मुझको दिखा कोई

आँसुओं से प्यास बुझी कभी
कभी प्यासा लौटा मधुशाला से
हलाहल और मधु में अंतर मुझको बतला दे कोई

कभी भावशून्यता रही मन में
कभी भाव अधिकता से कारण
कह न सका बातें मन की संदेश उन तक पहुँचा दे कोई

भाग्य भरोसे कभी बैठकर
कभी मान कर्म को जीवन
नीरव चाहा पाना न मिला मिला दूजा ही कोई मुझको कोई

यही सीख तेरी


जब भी याद किया किसी को
मुझको तेरी याद ही आई प्रिय
देस में परदेस में
तट में, पनघट में
राह में, भवन में
मझधार में, गगन में

जब भी देखा किसी को
तू ही दी दिखलाई प्रिय
मेले में, अकेले में
बाँसुरी पर, शहनाई पर
भीड़ में, तनहाई में
मृदंग पर, ढपली पर
जब भी कोई गूँज सुनी
तेरी आवाज ही आई प्रिये

मंदिर में, मस्जिद में
गिरजा में, गुरुद्वारे में
शबद में, प्रार्थना में
पूजा में, अजान में
प्यार करो यही सीख तेरी
पड़ी सभी जगह सुनाई प्रिय

Tuesday, March 16, 2010

खोजने स्वयं को.....?

निकला हूँ खोजने स्वयं को
जो कभी बसता था मुझमें
जो कभी रचता था मुझमें
नादानी या भूल में छोड़कर
चला गया है जाने कहाँ मुझको
निकला हूँ खोजने स्वयं को

घोर, वन पथरीली राहों में
खिलते चमन, खिजाँ की हवाओं में
सारी दुनिया में, इन बेचैन निगाहों में
ढूँढ़ा है अपने उस रूठे प्रियतम को
निकला हूँ खोजने स्वयं को

रे तू छिपा है कहाँ पर
पूछता पाता न उत्तर
क्लांत नीरव ढूँढ आया
धरती, सागर और गगन को
निकला हूँ खोजने स्वयं को

फिर अचानक वही मधुर स्वर
कान में ये कह रहा है
तू जिसे खोजता वह मिलेगा
भीतर हीदेख जरा अपने मन को
निकला हूँ खोजने स्वयं को

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।