Thursday, October 4, 2012

द्वीप ही बने रहना चाहता हूँ


मैं एक द्वीप रहना चाहता हूँ
बहती नदी है संसार की
आस-पास में बहती रहे
मैं नहीं संग बहना चाहता हूँ

जानता हूँ तिल-तिल रेतती हैं
धार हरहराती मुझे
मैं, अक्षुण्ण भले न
अड़े रहना चाहता हूँ

कौन जाने आपदा जो मुझपर है
कल को अनिवार कारणों से नदी पर आए
मैं यहीं, यूँ ही बना रहूँ अटल
नदी की ही धार मुड़ जाए या कि
नदी को ही स्वयं मोड़नी पड़ जाए

जो हो, जब तक रेत न हो जाऊँ पूरी तरह
(और जानता हूँ इसमें वक्त लगेगा बहुतेरा)
मैं न घुटने टेकना चाहता हूँ,
न नदी के संग बहना चाहता हूँ,

मैं जहाँ हूँ, जैसा हूँ, जबसे हूँ
बसो उतना वैसा भले न, मगर बने रहना चाहता हूँ।

मेरा काव्य संग्रह

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।