मैं बोल पड़ी और तुम्हारा तसव्वुर टूट गया काश कि रह पाती चुप तुम्हारे लगातार देखे जाने के समय गया तुम लौट आए फिर अपनी चंचल और शरारती बातों की ओर गहरी और संजीदा ख़्यालों की दुनिया से काश कि रह पाती चुप जब तुम मुझे देख रहे होते
मैं उपलक्ष्य नहीं लक्ष्य पहचानता हूँ इसीलिए मछली की आँख नहीं द्रुपद कुमारी की बाँह थामता हूँ 2 लक्ष्य मेरा भी है लेकिन वह मछली नहीं आँख नहीं द्रुपद कुमारी नहीं 3 खो सा गया है लक्ष्य मेरा उपलक्ष्यों के लबादे के नीचे या कि दुबका हुआ काँपता है 4 उपलक्ष्य नहीं लक्ष्य नहीं दौड़ नहीं केवल घूमना-घूमते रहना सतत कोल्हू के चहुँओर निरंतर.... 5 क्या लक्ष्य पर पहुँच कर हो जाना लक्ष्यहीन ही होता है लक्ष्य या कि पहुँचना उस बिंदू तक जिसके आगे लक्ष्य नहीं।