Saturday, October 24, 2009

24 जनवरी















कुछ तारीख़े
बन जाया करती है
कविता......

Friday, October 23, 2009

उदास चाँद



तुम हो, 
मैं हूँ
 चाँदनी रात है ,
चाँद फिर भी उदास है.........
मैं और मेरी तनहाई

Thursday, October 22, 2009

बातूनी













मैं बोल पड़ी
और तुम्हारा तसव्वुर
टूट गया
काश कि रह पाती चुप
तुम्हारे लगातार देखे जाने के
समय
गया
तुम लौट आए
फिर अपनी
चंचल और शरारती
बातों की ओर
गहरी और संजीदा
ख़्यालों की दुनिया से
काश कि रह पाती चुप
जब तुम मुझे देख रहे होते

महक






वो

देर तक

महका किए

मेरे तसव्वुर में

ताजा ग़ुलाब की तरह

खामोशी


 बहुत कोशिशों के बाद , सिर्फ इतना बोली खामोशी मैं भी बहुत मुखर थी कभी अब सिल लिए हैं होंठ होंठ क्योंकि जब भी खुलते हैं दूरियाँ बढाते हैं.........

लक्ष्य


1

मैं उपलक्ष्य नहीं
लक्ष्य पहचानता हूँ
इसीलिए
मछली की आँख नहीं
द्रुपद कुमारी की
बाँह थामता हूँ
2
लक्ष्य मेरा भी है
लेकिन
वह मछली नहीं
आँख नहीं
द्रुपद कुमारी नहीं
3
खो सा गया है
लक्ष्य मेरा
उपलक्ष्यों के लबादे के नीचे
या कि
दुबका हुआ
काँपता है
4
उपलक्ष्य नहीं
लक्ष्य नहीं
दौड़ नहीं
केवल
घूमना-घूमते रहना सतत
कोल्हू के चहुँओर
निरंतर....
5
क्या लक्ष्य पर
पहुँच कर
हो जाना
लक्ष्यहीन ही होता है
लक्ष्य
या कि
पहुँचना
उस बिंदू तक
जिसके आगे
लक्ष्य नहीं।

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।