Monday, December 10, 2012

स्वर्ण-सद्रश्य

दुख
जब तुम्हारे पास आया
औरों की तरह
तुमको उसने सिर्फ छुआ नहीं
उत्तरोत्तर
तपाया,सुखाया, जलाया
.................
इसमें ज्यादा अचरज की नहीं
दुख भी
सही पात्र पर अपना हाथ आजमाता है
जिसमें सह लेने की क्षमता हो
इस पर ही होता है तारी
.............................
जलती है केवल वही लकड़ी निर्धूम
जिसने कड़ी धूप में सूखकर
कर ली हो पहले ही तैयारी
.....................
ईमानदारी से
दुख अपना फर्ज निभाता है
जिसकी नींव हो मज़बूत
उसी ढाँचे को अपना घर बनाता है.

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।