Thursday, April 22, 2010

दो बूँद हमें भी दो साकी


रोशनी की मधुशाला से
दो बूँद हमें भी दो साकी
माना उजियारा है तेरे आँगन
तेरे आँगन है दीपों की बारात
कवि के मन अंबर में
लेकिन तिमिर निशा है बाकी
रोशनी की मधुशाला से
दो बूँद हमें भी दो साकी
है याद तुझे तेरे आँगन
उजियारे की खातिर
मन को जलाकर अपने
राह तुझे दिखलाई थी
इस भटके राही को मंजिल तक
पहुँचाने की अब तेरी बारी साथी
रोशनी की मधुशाला से
दो बूँद हमें भी दो साकी
मैं यदि उजियारा पाऊँ
तो तुमको उजियारा दूँ
नवगीत लिखूँ, लयबद्ध करूँ
नेह-रश्मियाँ तुम पर बरसाऊँ
मुझको मेरे हिस्से की दो मधु
नीरव मतवाला हो  ताकि

4 comments:

  1. बेहतरीन रचना.

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  2. बहुत सुन्दर.....रोशनी की दो बूंद ही काफी है मन के उजाले के लिए...

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  3. बहुत ही सुन्दर रचना
    तिमिर के खिलाफ --------

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।