Wednesday, April 21, 2010

प्रीत की प्रत्याशा

रे कवि अब बदल ले
अपनी कविता की भाषा
जिसके लिए तू जनम भर
दर्द को पीता रहा
जिनके लिए तू जनम भर
अश्क बन जीता रहा
देख वो मनमीत तेरे
देख वो हमप्रीत तेरे
तेरे घावों पर नमक छिड़क
मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं
क्या अब भी रखता है तू
इनसे प्रीत की अभिलाषा
जिनके लिए तू जनम भर
कोयल बन गाता रहा
जिनके लिए तू जनम भर
मधुगीत बनाता रहा
देख वो ही तेरे साथी
देख वो ही तेरे प्रीतम
तेरी डोली के आगे
मर्सिया गा रहे हैं
क्या अब भी रखता है तू
इनसे मधुगीत सुन पाने की आशा
जिनके कदमों के निशां से
तू कदम अपने मिलाता रहा
जिनकी राहों में हरदम तू
दिल अपना बिछाता रहा
देख वो हमराह तेरे
देख वो हमराज तेरे
चौराहे पर तुझे खड़ा कर
अपनी मंजिलों को जा रहे हैं
क्या अब भी रखता है तू
इनसे प्रीत की प्रत्याशा

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।