Tuesday, May 31, 2011

कुकनूस है सचमुच कवि भी


कुकनूस जो जुटाकर
काष्ठ, टहनी
और चिता-सी उसको सजाकर
वेदना भरे हृदय से
रागमय मृत्यु-गीत गाता
गीत की उस ध्वनि से
हो जाते अग्निदेव प्रकट
और तदंतर
लपटें, लपककर
उस चिता को है जलाती
स्वयं की देह को वह
अग्नि को सौंप देता
अग्नि-स्नान की इस प्रक्रिया से
भस्म ही अवशेष रहता
उस राख से जन्म लेता
एक और कुकनूस अभिनव
कवि भी अग्नि-स्नान की इस यंत्रणा से
नित्य-प्रति है गुजरता
किंतु त्रासदी यह भयंकर
पूर्ण दग्धता को
वह पाता नहीं
अधजला रहकर
नित्य अपनी ही जलन में
प्रतिक्षण है जलता रहता

1 comment:

  1. बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।