लिखूँ तो मैं केवल पुरुष कैसे रहूँ
क्योंकि मुझे निबाहनी है
मेरी ही नहीं
तुम्हारी भी कथा... व्यथा और अनुभूतियाँ
केवल अपने सत्य के सापेक्ष कैसे रहूँ
क्योंकि मैं तुम्हारे भी सापेक्ष हूँ
या तो स्वयं से भी निरपेक्ष रहूँ, तटस्थ रहूँ
या तुमको भी
रचना में स्वर दूँ
रचना में रहूँ तो
मैं
मैं कैसे रहूँ
ओ संगिनी
मैं तुमको संग ले
कुछ और ही हो जाऊँ
जब रचनारत होऊँ
क्योंकि मुझे निबाहनी है
मेरी ही नहीं
तुम्हारी भी कथा... व्यथा और अनुभूतियाँ
केवल अपने सत्य के सापेक्ष कैसे रहूँ
क्योंकि मैं तुम्हारे भी सापेक्ष हूँ
या तो स्वयं से भी निरपेक्ष रहूँ, तटस्थ रहूँ
या तुमको भी
रचना में स्वर दूँ
रचना में रहूँ तो
मैं
मैं कैसे रहूँ
ओ संगिनी
मैं तुमको संग ले
कुछ और ही हो जाऊँ
जब रचनारत होऊँ
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