Thursday, March 24, 2011

जल...जल...जल..

मुझको अर्घ्य में जल नहीं अग्नि रूचति है
सूर्य! क्या तुम अपनी देय पुनः स्वीकारोगे
कष्ट...कष्ट...कष्ट
ज्वालामुखी की भीतरी उबलन-सा
मैं उबला हूँ
लाख तपा हूँ
जला, झुलसा, पिघला हूँ
बाहर सदैव निर्मल जल-सा ही
मगर मैं उमड़ा हूँ
जल...जल...जल..
सिंधु !  क्या तुम अपनी विवशता पुनः स्वीकारोगे
अपनी ही खोज में अनुक्षण
प्रलय-सी लंबी अँधेरी गुफाओं में
कितनी बार मैं भटका हूँ
जब भी कोई रत्न पाया
अर्पित कर इंद्रधनुष-सा मैं खिला हूँ
संघर्ष... संघर्ष... संघर्ष...
जीवन क्या तुम अपनी हठ पुनः स्वीकारोगे

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।