Tuesday, May 25, 2010

कितनी क्षुद्र लेखनी मेरी


गिनती के गीत जुटा पाया
अपनी आँहों को उर में भर
तप कर, जलकर जीवन भर
संसृति सागर से गगरी में
दो-चार बूँद ही भर पाया
गिनती के गीत जुटा पाया
अलबेली मंजिल के दुष्कर पथ पर
कुछ फूल खिले कुछ काँटे थे
इनकी ही गंध चुभन को
अपनी साँसों में भर लाया
गिनती के गीत सुना पाया
मनचाहा यदि लगे तुम्हें कुछ
बिन पूछे ही ले जाओ
होगा कृतार्थ जीवन मेरा
किंचित भी यदि दे पाया
गिनती के गीत सुना पाया
इन्हें पढ़कर जी भर हँसना
मेरी भावुकता और नादानी पर
कितनी क्षुद्र थी लेखनी मेरी
सार की बात न कह पाया
गिनती के गीत सुना पाया।

4 comments:

  1. गीत की सान्द्रता और वैराग्य सा भाव खास सौन्दर्य की सृष्टि कर रहे हैं। आभार।
    आँहों को आहों कर दीजिए।

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  2. aisa nahi hai sir...aaj to saar ki baat keh di...

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  3. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।