कभी उसके हाथों से
ज्यादा नहीं हुआ नमक
न फीकी रही दाल-सब्जी
मिर्च-मसालों में भी
वो संतुलन साधती है
बोल-चाल, हाव-भाव में
वो भले रहे ऊँची-नीची
अपने काम को लेकिन
वैराग-भाव से निभाती है
उसके हाथों में स्वाद है
बनाव-शृंगार में सादगी
कोई बात तो है जो उसे
इतना थिर बनाती है
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नमक-मिर्च का संतुलन साधने वाली
हमारी जिंदगियों को स्वर्ग बनाती है
एक सुघड़, संपूर्ण स्त्री का होना आसपास
माहौल खुशनुमा बनाती है
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फिर क्या फर्क पड़ता है कि
वो किसकी पत्नी, बहन, माँ, बेटी
बुआ, काकी, मासी, चाची कहलाती है.
बहुत ख़ूबसूरत रचना...
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