मैं एक द्वीप रहना चाहता हूँ
बहती नदी है संसार की
आस-पास में बहती रहे
मैं नहीं संग बहना चाहता हूँ
जानता हूँ तिल-तिल रेतती हैं
धार हरहराती मुझे
मैं, अक्षुण्ण भले न
अड़े रहना चाहता हूँ
कौन जाने आपदा जो मुझपर है
कल को अनिवार कारणों से नदी पर आए
मैं यहीं, यूँ ही बना रहूँ अटल
नदी की ही धार मुड़ जाए या कि
नदी को ही स्वयं मोड़नी पड़ जाए
जो हो, जब तक रेत न हो जाऊँ पूरी तरह
(और जानता हूँ इसमें वक्त लगेगा बहुतेरा)
मैं न घुटने टेकना चाहता हूँ,
न नदी के संग बहना चाहता हूँ,
मैं जहाँ हूँ, जैसा हूँ, जबसे हूँ
बसो उतना वैसा भले न, मगर बने रहना चाहता हूँ।
No comments:
Post a Comment