Monday, September 17, 2012

हर वक्त कोई कहाँ सिकंदर रह पाता है!


 खेल कोई भी हो, अपरिहार्य वजहों से,
खतरा बढ़ जाता है
एक वक्त के बाद
हर खेल खतरनाक हो जाता है
नहीं रहता खेलने वाले के हाथ में,
किसी ओर का हो जाता है
जाने-अनजाने चली
हर चाल धारण कर लेती है
एक अर्थ
अर्थ से अनर्थ का मेल शुरू हो जाता है
प्यादे, घोड़े, हाथी, वज़ीर
सब बदलने लगते हैं रूख औ रूप
हर गोट महत्वपूर्ण हो जाती है
कोई भी चलो बाज़ी
खेल खत्म होने का
खेल शुरू हो जाता है
सारी इंद्रियाँ सजग हो जाती है
हर हरकत आ जाती है नज़रों के दायरे में
माथे के पास फड़कती नस हो
या पुतलियों का स्थिर-एकाग्र होना
हर जुंबिश का एक मायना
अज़ब और अज़ीब नजर आता है
क्या राजनीति, क्या भूगोल
क्या समाजशास्त्र, वाणिज्य, अर्थशास्त्र
हर शास्त्र बन जाता है विज्ञान
विज्ञान में कलाकार नजर आता है
एक तरफ कुआँ, एक तरफ खाई
तनी रस्सी भले नहीं पड़ती ढ़ीली
रस्सी पे चलते रहने का हुनर डगमगा जाता है
इन सब खतरों को खेते हुए
हानि, अमंगल, नुकसान सहते हुए
जो कोई इसे निभा ले जाने का
साहस जुटा पाता है
तिलस्मी दरवाजे खुलते हैं, उसी के लिए
जीत जाता है वो हर बाजी
सिकंदर बनकर उभर आता है
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नियति यह है कि कोई भी सिकंदर
हर वक्त कहाँ सिकंदर रह पाता है

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।