Wednesday, June 29, 2011

रेत का घर है अपना


राह में लपटें बिछी हैं काग़ज़ी पाँव के नीचे
संभल कर चलें कितना आखिर तो है चलना
प्यार है समंदर से लहरों से बचना मगर लाज़मी
साहिल से दूर जाएँ कैसे रेत का घर है अपना
दौड़ते दिखते हैं मगर कहीं पहुँचते नहीं
ये वो लोग हैं दुबले होना है जिनका सपना
दोस्ती नहीं, मुहब्बत नहीं  कोई रंजिश भी नहीं
फख्र से कैसे कहें ये शहर है अपना
जहाँ कद नहीं वजन हो नाप आदमी का
तुम्हारा शौक तुम्हें मुबारक मुझको रास नहीं ये दुनिया

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।