राह में लपटें बिछी हैं काग़ज़ी पाँव के नीचे
संभल कर चलें कितना आखिर तो है चलना
प्यार है समंदर से लहरों से बचना मगर लाज़मी
साहिल से दूर जाएँ कैसे रेत का घर है अपना
दौड़ते दिखते हैं मगर कहीं पहुँचते नहीं
ये वो लोग हैं दुबले होना है जिनका सपना
दोस्ती नहीं, मुहब्बत नहीं कोई रंजिश भी नहीं
फख्र से कैसे कहें ये शहर है अपना
जहाँ कद नहीं वजन हो नाप आदमी का
तुम्हारा शौक तुम्हें मुबारक मुझको रास नहीं ये दुनिया
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