बर्फ...बर्फ...बर्फ
प्रकृति के साथ हो जाता है
सब कुछ वैसा ही
नाक, मुँह, कान, बाल
ग्लास काँच का, लोहे का पाईप
बिस्तर, यहाँ तक कि गीज़र भी
(कैसे अपने रंग में रंग लेता है मौसम)
.................................................
मुँह से मगर निकलती है
भाप
कहती है फुसफुसाकर
- करती है आश्वस्त – बाहर से हो गए हो
मौसम की तरह सर्द
मगर मन तो मणिकर्ण है
गंधक के उबलते पानी की तरह
सच है
तन मनाली हो गया हो भले
मन तो शाश्वत मणिकर्ण है
प्रकृति के साथ हो जाता है
सब कुछ वैसा ही
नाक, मुँह, कान, बाल
ग्लास काँच का, लोहे का पाईप
बिस्तर, यहाँ तक कि गीज़र भी
(कैसे अपने रंग में रंग लेता है मौसम)
.................................................
मुँह से मगर निकलती है
भाप
कहती है फुसफुसाकर
- करती है आश्वस्त – बाहर से हो गए हो
मौसम की तरह सर्द
मगर मन तो मणिकर्ण है
गंधक के उबलते पानी की तरह
सच है
तन मनाली हो गया हो भले
मन तो शाश्वत मणिकर्ण है
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (2-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
priya nirava ji
ReplyDeletenamskar ,
achha laga aapke kavya-aveg ko padhakar ,sundar prastuti. likhate rahen .aabhar /