Tuesday, October 19, 2010

धूप क्वांर-कार्तिक की

धूप झिलमिलाती है
नए पैटर्न बनाती है
छा जाती है छत पे
पापड़-बड़ियाँ सुखाती है
रोशनदानों से छनकर
कोनों को महकाती है
खुली खिड़कियों में समा
दरवाजे को मुँह चिढ़ाती है
मेरी कलम पर उतर
कविता लिखवाती है
आ जाओ घर-जल्दी-
साँझ हुई जाती है
धूप क्वांर-कार्तिक की
मुझे तुझ-सा बनाती है

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।