Saturday, November 6, 2010

तर्क, तर्क, तर्क.....

क्यों जकड़ लिया जाता हूँ
मैं
एक पगलाए अहम में
नहीं छू पाती तब
मुझे
जीवन की सहज बातें
प्यार का औदात्य
तुम्हारी देह गंध
बस मैं होकर रह जाता हूँ
एक दिमाग
स्वचालित और आत्मकेंद्रीत
तर्क, तर्क, तर्क
पगलाए पर बुद्धि पगे
(या मात्र आवेश से सने, आवेग से लदे)
तुम्हें झुकाने को
(या शायद स्वयं जीत जाने को)
आतुर तर्क
कहाँ चला जाता है
मेरा बड़ापन
त्याग, समर्पण नशा
 और सब पर आकाश की तरह
छा सकने वाला प्यार
..................
................
और यकायक
मुझे छूती है
तुम्हारी खुशबू
मुझे घेर लेती है
तुम्हारी थरथराती पलकें
खींचते हैं तुम्हारे दाँत और मसूड़े
और लो मैं फिर बन जाता हूँ वैसा
जिसे कह सको तुम
‘बहुत पागल हो’

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।