तोड़ बैठे रिश्ता-ए-ज़िदगी ही हम
कोई कैसे कहेगा, ज़िदा है अब हम
अब न उदास धड़कनें हैं न प्यास है
न तुम, न तुम्हारी याद, न खुशी, न ग़मन
मचलते अरमाँ है, न बदहवासी का आलम
अब तो हमारी तनहाई है और है हम
तोड़ बैठे रिश्ता-ए-ज़िदगी ही हम
कोई कैसे कहेगा, ज़िदा है अब हम
न शरबती लब है, न मय छलकाती आँखें
न लहराते गेसू हैं, न खोजती किसी को नज़र
न तुम, न तुम्हारी खुशबू न साँसें है गर्म
अब तो हमारी रूसवाई हैं और हैं हम
तोड़ बैठे रिश्ता-ए-ज़िदगी ही हम
कोई कैसे कहेगा, ज़िदा है अब हम
न उमंग है, न मस्ती, न ज़ुंबिश कहीं
न उदासी, खालीपन नहीं, बेचैनी भी नहीं
अजब सा वीराना है, अजब-सा है मौसम
अब तो अजनबी पन है और हैं हम
तोड़ बैठे रिश्ता-ए-ज़िदगी ही हम
कोई कैसे कहेगा, ज़िदा है अब हम
न रानाईयाँ है तेरे हुस्न की, न नशा
न तेरे जमाल की मदमाती अँगड़ाई है
न रूप की तपती धूप है, न गेसूओं की छाँव नरम
अब तो बेहया जिंदगी है, और हैं हम
kya vakai main
ReplyDeletejinda hain hum
bahut khoob likha janab
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
बहुत सुन्दर रचना है\ बधाई।
ReplyDeleteन शरबती लब है, न मय छलकाती आँखें
ReplyDeleteन लहराते गेसू हैं, न खोजती किसी को नज़र
वाह खूब
बेहतरीन गज़ल....
ReplyDeleteआपकी उर्दू पर काफी अच्छी पकड़ है.