बहुत शांत होती है, बहुत ख़ामोश...
कहीं कोई हलचल नहीं,
कोई जुम्बिश नहीं,
मगर मैं, सिर्फ मैं जानता हूँ
कि यह शांति नहीं सन्नाटा है...
तूफान के आने के पहले की
शांति-सा...।
मौन, निस्तब्ध यामिनी
यह अच्छी तरह समझती है,
कि हर तूफान के पहले
ऐसी ही शांति होती,
मरघट की शांति...
ज्यों-ज्यों शाम गहराती है,
मन की परतें खुलती जाती है
अनवरत... धीरे-धीरे...
प्याज़ के छिलकों की तरह...
चेतन पर हावी होता
जाता है अवचेतन
विवेकानंद पर हावी
होता है फ्रायड...
गोर्की पर कामू...
टॉलस्टाय पर युंग...
प्रेमचंद पर सार्त्र
मैं सोचता हूँ-
मेरा पतन हो रहा है,
मगर तभी कानों में
गूँजता है गीतासार
और आँखों में उभरता है,
कृष्ण का साँवला-सलोना,
चंचल चेहरा,
जो उद्घोषणा करता है
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मैं अलसा जाता हूँ
तभी आते हैं विवेकानंद
और कहते हैं
‘उतिष्ठ जागृत प्राप्य वरान्निबोधत्’
मगर जागने के लिए
सोना जरूरी है
सोने जाता हूँ, तो
रॉबर्ट फ्रॉस्ट कहता है
सोने से पहले कोसों चलना है...
मैं चल पड़ता हूँ
अनंत, अनवरत, अथक,
महायात्रा पर...
ठीक किसी अलसाए भौंरे की तरह
किसी थकी मंद समीर की तरह,
मगर कोई भी यात्रा
नहीं पहुँचाती किसी मंजिल तक,
मगर फिर भी मैं रोज
स्वीकारता हूँ,
अंतहीन सफर की
इस नियति को,
क्योंकि मुझे लगता है,
कोई और भी है – जो चल रहा है-
अंतहीन सफर में, यायावर की तरह
ठीक उससे पहले, जबकि नींद अपने
आग़ोश में मुझे देती है
चंद घंटों की मौत...
मैं सोचता हूँ
कि जीत जाते हैं अंतत:
दकियानूसी संस्कार...
परंपराएँ, रूढ़ियाँ...
फ्रायड, कामू, सार्त्र
हार जाते हैं,
जीत जाते हैं
टैगोर, गाँधी
प्रेमचंद...।
गणेशचतुर्थी और ईद की मंगलमय कामनाये !
ReplyDeleteअच्छी पंक्तिया लिखी है आपने ...
इस पर अपनी राय दे :-
(काबा - मुस्लिम तीर्थ या एक रहस्य ...)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_11.html
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteहिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
देसिल बयना – 3"जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!", राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें