Saturday, August 7, 2010

तब शायद इस तरह होता

तुम निकाल देती
अपनी युवावस्था
पढ़ाई में; लायब्रेरी में; विश्वविद्यालयों के गलियारों में।
मोटी थीसिस के पन्ने
पर पन्ने पलटाकर, संदर्भ ग्रंथों में सिर खपाकर
बड़े मनोयोग से अपनी एक नई थीसिस
तैयार कर लेती;
जो मौलिक और सराहनीय
होती;
तुम डॉक्टर हो जाती।
तुम्हारे नाम के आगे जुड़ी इस
उपाधि के साथ ही
जुड़ चुका होता
पदनाम
बहुत संभव है
तुम किसी कॉलेज में लेक्चरर हो जाती;
तुम अपने लॉन में मौसमी
फूलों के सदाबहार बोनसाई
और कैक्टस उगाती,
कोनों पर गुलदाऊदी और
मनीप्लांट लगाती;
दूब की विभिन्न प्रजातियों पर
अपने सहयोगियों से
चर्चा करते हुए तुम
कोई हरी, मखमली
विदेशी दूब मँगाती
सुबह चाय पीते समय
अखबार पर नजरें दौड़ाती,
अपनी बिल्ली (या कुत्ते)
को सहलाती;
फिर इठलाती फिज़ा और
रेशमी सुबह को धता
बताकर अपने
मकां में घुस जाती
(अपने उस मकान में बड़ी शान से तुम ‘मेरा घर’ बतलाती)
और जब बाहर आती तैयार होकर
तो तुम्हारे व्यक्तित्व के अनुरूप
तुम्हारे शरीर पर
वस्त्र होते,
तुम्हारे रंगों का चयन
वैसा ही अभिजात्य और
परिष्कृत होता।
कॉलेज में तुम धाराप्रवाह पढ़ाती
सहयोगियों से राजनीति पर,
साहित्य और मनोविज्ञान
पर खूब बतियाती
कभी खूब गंभीर भी हो जाती,
छात्राएँ तुम्हें सम्मान
सहयोगी स्नेह
और अधिकार
तवज्जो देते;
वहाँ से लौटकर
तुम फिर अपने घर आती
(चलो मैं तुम्हारे ही स्वर में कहे देता हूँ)
कुछ थकी-थकी कुछ
कुम्हलाई-सी
नौकर (या नौकरानी)
तुम्हारे लिए कॉफी बनाते;
उतनी देर में तुम
आँखें बंद कर सुस्ता
चुकी होती,
कॉफी पीते समय तुम्हारी
बिल्ली (या कुत्ता)
तुम्हारे कदमों में लौटता
तुम प्यार से उसे –
अपने पास बिठा लेती
उसके बाद तुम
रिकॉर्ड पर कोई पुरानी धुन,
किसी परिचित या दोस्त द्वारा
भिजवाया कोई नया
रिकॉर्ड सुनती
ग़ुलाम अली, जगजीत या
गुलज़ार को,
तुम्हारे पास निस्संदेह कुछ
विदेशी रिकॉर्ड भी होते,
जिन्हें तुम कभी नहीं सुनती,
या कभी मेहमानों के स्तर (!) के
अनुरूप उन्हें लगा देती
मेहमानों को विदा करते समय
तुम ना देख पातीं कि
दोपहर ढल गई है,
शाम हो आई हो
तुम्हारी कनपटियों के
पास के बालों की
सफेदी और आँखों
पर चढ़ा चश्मा
परिचायक होता इसका;
लेकिन अपवाद तुम
फिर भी होती,
उम्र के प्रभाव से ना
चिढ़चिढ़ाती, ना
रूखी हो जाती, ना
झुँझलाती, बल्कि और
शांत और गंभीर
हो जाती
तुम्हारे गंभीर चेहरे पर जब
कभी एक सरल, मृदुल
मुस्कान फैल जाती
तो देखने वाले
अवाक रह जाते; और
दूसरों को तुम्हारी
मिसाल बतलाते।
बेहिचक तुम समाज में
विदूषी भद्र
अनोखी महिला के
नाम से जानी जाती,
पुरूष तुम्हें (और तुम्हारी शोहरत को) हसरत भरी
और महिलाएँ ईर्ष्या
भरी निगाहों से देखती,
चारों और तुम्हारी
सहजता, सरलता और
कीर्ति की बातें होती।
लेकिन, साल में दो-एक बार
तुम
जब भी छुट्टियों में
समुद्र किनारे जाती, ( जाती ना? मैं जानता हूँ अवश्य)
तो किसे पता चलता
कि देर-देर तक
तट की रेत पर बैठकर
तुम आती-जाती लहरों को
देखा करतीं,
उदासी और अकेलेपन में डूबकर
देर रात तक अँधेरों से ग़ुफ़्तग़ूं करतीं,
किसे पता चलता कि
क्या-क्या तुम
समुद्र में बहा आती
किसे पता चलता कि
कर्मरत् और मजबूत रहने के लिए समुद्र से सम्पूर्णता को
लेकर, बदले में तुम क्या दे आती
सब तो ही समझते तुम लंबे प्रवास से आई हो।

 

1 comment:

  1. बहुत सुंदर अभिव्‍यक्ति .. बडी सफलता का एक पक्ष ये भी होता है !!

    ReplyDelete

मेरा काव्य संग्रह

मेरा काव्य संग्रह
www.blogvani.com

Blog Archive

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

about me

My photo
मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।