Friday, July 16, 2010

सावन बनकर के आ जाओ


कहीं बूँदों की रिमझिम है,
कहीं आँसूओं की बरसातें हैं
चले जाओ ओ प्रियतमा
हम, कब से अकेले हैं
आकाश पर छाए श्यामल घन
कहीं बिखरी उदासी है
धरती है तृषित सारी
कहीं अँखिया प्यासी हैं
सावन बनकर के आ जाओ
मन-मौसम पे छा जाओ
मधु छलका के सब कहीं
मदहोश सबको कर जाओ
यामिनी का कहीं चकमक है
कहीं जोरों का घन गर्जन है
मन में भी मेरे गमक गर्जन
तुम संबल बनकर आ जाओ
मन में बेकरारी है
चहककर देख लूँ तुमको
मचलकर पाँव मैं पकडूँ
झूठे ही रूठ लूँ तुमसे
सचमुच तुम हमें मनाओ

2 comments:

  1. कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।

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  2. एक अच्छी कविता समय के अनुसार बधाई

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।