कोई एक भी साथी ऐसा
मन की बात जिसे कह सकूँ
मीत बना सकूँ अपने जैसा
की बहुतों ने दोस्ती मगर
दोस्त न बन सका कोई
प्रीत की डोरी बाँधी बहुतों ने
प्रियतम न बन सका कोई
ढाली प्यालों में साथ बहुतों ने
हमप्याला न बन सका कोई
बाँटे बहुतों ने दर्द मुझे
हमदर्द न बन सका कोई
बाँट लूँ जिसके साथ
खुशी गम के लम्हें अपने
पा न सका अब तक मैं
कोई एक भी साथी ऐसा
मन के प्रवाह दबाने से
सरिता न बन सका
ज्वालामुखी बन रह गया मैं
व्यक्त न कर सका भाव अपने
अव्यक्त-सा रह गया मैं
देकर हृदय के उद् गार जिसे
वेदनामुक्त हो सकूँ
पा न सका अब तक मैं
कोई एक भी साथी ऐसा
निकला जब भी गुलशन से
सोचा तोडूँ कलियाँ दो चार
लगा दूँ तेरे बालों में
सोचा था यही हर बार
दिल की बगिया को सवाँरे
कोई माली न मिल सका ऐसा
महका दे मुझको
मेरे तन-मन को
पा न सका अब तक मैंकोई एक भी साथी ऐसा
बहुत उम्दा रचना!!
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