Thursday, January 28, 2010

अर्जुन-दुविधा


अपनी हार भी कर स्वीकार रे मन
महत्वाकांक्षी तू रहा सदा से
जीतता तू रहा निरंतर
अपने कर्मफल से लेकिन
ना कर तू इंकार रे मन
अपनी हार भी...
जितनी चाही थी पी तूने
मधु सदा ही होंठों से
अपने हिस्से की हलाहल को भी
अब कर स्वीकार रे मन
अपनी हार भी...
तेरी नैया को रे माँझी
मिला किनारा ही हरदम
अनुभव इसका भी ले ले अब
जब मिली तुझे मझधार रे मन
अपनी हार भी...
सुख-दुख की चिंता में
व्यर्थ रहा तेरा चिंतन
तेरे कर्मों का ही फल है
तू समझ रहा जिसे दुर्भाग्य रे मन
अपनी हार भी...
कौन है अपना कौन पराया
तू चिंता न कर इसकी
अपनी रौ में ही बहता रह नीरव
कर सबसे तू प्यार रे मन
अपनी हार भी...
तेरे संकोचों ने ही देख ले
तुझको आज हराया है
रणभूमि है ये नीरव
कर दुश्मन पर वार रे मन
अपनी हार भी...

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।