पुराने पत्तों के निशान
पेड़ पर कहाँ रह पाते हैं?
उड़कर वहीं कहीं दफन हो
नए पत्तों के लिए खाद बन जाते हैं...
हम पेड़ नहीं इंसान हैं
गो यादें तो रख पाते हैं
यादों के दर्द तो फिर भी
नए रिश्तों ही के काम आते हैं
इधर से देखो या उधर से
हम सब धीरे-धीरे पेड़ बनते जाते हैं
जितना लेते हैं जमीन से,
हवाओं को उतना अधिक लुटाते हैं...
बीज, जड़ें, अंकुर, पौधा, झाड़ी, पेड़, घना वृक्ष
सीढ़ियाँ हैं चढ़ जाते हैं
जिन पुरखों ने लगाया है, उनकी पीढ़ियों के
कभी दरवाजे, कभी खिड़कियाँ,
कभी कुर्सी मेज, अलमारी बन जाते हैं....
अंत कहाँ है कौन जानता
पेड़ हो या इंसा हो
हवा, मिट्टी, पानी
भूमि, आकाश
जहाँ से आए वहीं चले जाते हैं
(फिर-फिर वापस आते हैं)
बहुत गहरी रचना, ब्धाई.
ReplyDeleteयह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।
हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.
नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
आपका साधुवाद!!
नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी