निकला हूँ खोजने स्वयं को
जो कभी बसता था मुझमें
जो कभी रचता था मुझमें
नादानी या भूल में छोड़कर
चला गया है जाने कहाँ मुझको
निकला हूँ खोजने स्वयं को
घोर, वन पथरीली राहों में
खिलते चमन, खिजाँ की हवाओं में
सारी दुनिया में, इन बेचैन निगाहों में
ढूँढ़ा है अपने उस रूठे प्रियतम को
निकला हूँ खोजने स्वयं को
रे तू छिपा है कहाँ पर
पूछता पाता न उत्तर
क्लांत नीरव ढूँढ आया
धरती, सागर और गगन को
निकला हूँ खोजने स्वयं को
फिर अचानक वही मधुर स्वर
कान में ये कह रहा है
तू जिसे खोजता वह मिलेगा
भीतर हीदेख जरा अपने मन को
निकला हूँ खोजने स्वयं को
वाह..बहुत सुन्दर ज्ञान!
ReplyDeleteबहुत खूब, लाजबाब !
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