उनके स्वप्न ही साथी अब तो
जो थे कभी मन के मीत।।
हैं ना जाने वो कहाँ पर
ना कोई सुराग ना कोई खबर
बैठा हूँ निढ़ाल सा अब तो
अकेला ही सहलाता अपने पाँव विथकित
उनके स्वप्न ही साथी अब तो
जो थे कभी मन के मीत।।
जग में जब भी बेचैनी पाऊँगा
सोचा था – आवाज दे तुझे बुलाऊँगा
किंतु मेरा स्वर ही वादियों में अब तो
गूँजकर आता है मेरी ओर विपरित
उनके स्वप्न ही साथी अब तो
जो थे कभी मन के मीत।।
उन गीतों को कैसे दोहराऊँ
जो सुख के क्षणों में थे गाए
दर्द-ए-दिल ही बढ़ाते अब तो
वापस ले ले खुशी के गीत
उनके स्वप्न ही साथी अब तो
जो थे कभी मन के मीत।।
चार दिन जो प्रिय संग रहेगा
फिर उम्र भर तनहा फिरेगा
ढूँढता फिर रहा नीरव अब तो
चलाई जिसने ये अजीब सी रीत
उनके स्वप्न ही साथी अब तो
जो थे कभी मन के मीत।।
बहुत गहन अभिव्यक्ति!
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