हार कहूँ इसको अपनी,या कहूँ अपनी जीत इसे .
स्वाद सदा कड़ुवा निकला
जब भी चखा मैंने जय को
मीठी लगी पराजय अपनी
त्रासदी कहूँ या रीत इसे .
शब्द खोए रहे सदा ही
जब भी मैंने छन्द लिखे
भाव सहित लिखा फिर भी
दर्द कहूँ या गीत इसे .
जिसको मैंने दिया सम्बल
जिसको मैंने दिया सम्बल
उसी के हाथों हुआ हूँ निर्बल
तुम तो मेरे दुश्मन निकले
कैसे कहूँ मनमीत इसे .
मीठे बैन सुनने को हरदम
आतुर रहता मन मेरा
कानों को जो कटु लगता
कैसे कहूँ संगीत इसे .
मैंने तो बस पाई टूटन
तुमने जब भी निर्माण किया
यह तो है म्रगत्रश्णा नीरव
कैसे कहूँ प्रीत इसे .
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