क्या जीत तुमने यदि जीता
मुझको मेरी दुर्बलता के क्षण में
पहले पहल विश्वास दिलाकर पास बुलाया तुमने मुझको
फिर अपने तीखे नयनों से
घायल कर डाला मन को
यह समर की नहीं रीत प्रिये
जीतना है तो
जीतो मुझे समरांगण में
क्या जीता तुमने..
दूर आसमां में उड़ते पंछी को
प्रीत का चुग्गा दिखाकर
बंद किया लौह पिंजरे में
प्रलोभनों का जाल बिछाकर
यदि सचमुच है मुझसे नेह
तो जाने दो मुझे अपने गगन में
क्या जीता तुमने...
एक प्यासा
देख सुराही पास
देख सुराही पास
आया था तेरी मधुशाला
क्या दोष था उस मतवाले का
जो पिला दिया उसको द्रव काला
भोले को पिला हलाहल कहते हो
है जायज़ सब प्यार और रण में
क्या जीता यदि....
अब तो साँसे उठती गिरती
जुबाँ भी लड़खड़ा रही है
जुबाँ भी लड़खड़ा रही है
तन पर कितने तीर चुभे
मन भी घाँवों से अटा है
अगले युग में तुमको जीतूगाँ नीरव
छोड़ता हूँ साँसें इसी प्रण में
sundar kavita ke liye aabhar
ReplyDeleteबेहतरीन!
ReplyDeleteSUNDER RACHNAA
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