Sunday, March 21, 2010

छोड़ता हूँ साँसें


क्या जीत तुमने यदि जीता
मुझको मेरी दुर्बलता के क्षण में
पहले पहल विश्वास दिलाकर पास बुलाया तुमने मुझको
फिर अपने तीखे नयनों से
घायल कर डाला मन को
यह समर की नहीं रीत प्रिये
जीतना है तो
जीतो मुझे समरांगण में
क्या जीता तुमने..

दूर आसमां में उड़ते पंछी को
प्रीत का चुग्गा दिखाकर
बंद किया लौह पिंजरे में
प्रलोभनों का जाल बिछाकर
यदि सचमुच है मुझसे नेह
तो जाने दो मुझे अपने गगन में
क्या जीता तुमने...

एक प्यासा
देख सुराही पास
आया था तेरी मधुशाला
क्या दोष था उस मतवाले का
जो पिला दिया उसको द्रव काला
भोले को पिला हलाहल कहते हो
है जायज़ सब प्यार और रण में
क्या जीता यदि....

अब तो साँसे उठती गिरती
जुबाँ भी लड़खड़ा रही है
तन पर कितने तीर चुभे
मन भी घाँवों से अटा है
अगले युग में तुमको जीतूगाँ नीरव
छोड़ता हूँ साँसें इसी प्रण में

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।