Friday, November 6, 2009

सम्यक्



जो अन्ततःसमुद्र में मिलती है
जिसे हम समझ बैठते हैं
झील या डबरा

हरेक जिन्दगी एक सम्पूर्ण पेय है
जिसे हम समझ बैठते हैं
पानी खारा


वस्तुतः जीवन एक औपन्यासिक कृति है
जिसे हम समझ बैठते हैं
लघुकथा


सबका जीवन एक परंपरा है
जिसे हम समझ बैठते हैं
क्षणव्यथा


अच्छा हो अगर हम पहचान लें
अपने जीवन की
प्रवाहितता, सम्पूर्णता,
औपन्यासिकता और परंपरा
वरना एक सूने, रवहीन, रेगिस्तान में
परिवर्तित हुआ जा रहा है
जीवन हमारा.......




1 comment:

  1. तो फिर इस सबमें क्षणवादी कहाँ खड़े होते हैं....?

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मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है जिसे हम प्रकृति कहते हैं।